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ग़ुलाम की रोज़ ओ शब ग़ुलामी में क्या कमी थी | शाही शायरी
ghulam ki rose o shab ghulami mein kya kami thi

ग़ज़ल

ग़ुलाम की रोज़ ओ शब ग़ुलामी में क्या कमी थी

ख़ालिद इक़बाल यासिर

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ग़ुलाम की रोज़ ओ शब ग़ुलामी में क्या कमी थी
कनीज़ के इल्तिफ़ात ओ ख़ूबी में क्या कमी थी

इन्हें दर-ए-ख़्वाब-गाह से किस लिए हटाया
मुहाफ़िज़ों की वफ़ा-शिआरी में क्या कमी थी

जलाल-ए-गीती सताँ से दरबार काँपता था
मुक़र्रिबों की मिज़ाज-फ़हमी में क्या कमी थी

गिराँ गुज़रता था क्यूँ तबीअत पे साथ उस का
वज़ीर-ज़ादे की नुक्ता-संजी में क्या कमी थी

नशिस्त में इस क़दर तअम्मुल ब-वक़्त-ए-रुख़्सत
मुरस्सा ओ मुस्तइद सवारी में क्या कमी थी

खड़े थे क्यूँ चौकीदार दो-रूया नेज़े थामे
महल की दीवार की बुलंदी में क्या कमी थी

गुज़र न सकता था कोई ख़्वाजा-सरा न बांदी
हरम के राज़ों की पासदारी में क्या कमी थी

न जाने सालार मुतमइन क्यूँ नहीं थे 'यासिर'
सिपाह के अज़्म ओ जाँ-सिपारी में क्या कमी थी