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गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला | शाही शायरी
gudaz-e-dil se mila sozish-e-jigar se mila

ग़ज़ल

गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला

हफ़ीज़ मेरठी

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गुदाज़-ए-दिल से मिला सोज़िश-ए-जिगर से मिला
जो क़हक़हों में गँवाया था चश्म-ए-तर से मिला

तअ'ल्लुक़ात के ऐ दिल हज़ार पहलू हैं
न जाने मुझ से वो किस नुक़्ता-ए-नज़र से मिला

कभी थकन का कभी फ़ासलों का रोना है
सफ़र का हौसला मुझ को न हम-सफ़र से मिला

मैं दूसरों के लिए बे-क़रार फिरता हूँ
अजीब दर्द मुझे मेरे चारा-गर से मिला

हर इंक़लाब की तारीख़ ये बताती है
वो मंज़िलों पे न पाया जो रहगुज़र से मिला

न मैं ने सोज़ ही पाया न इस्तक़ामत ही
हजर हजर को टटोला शजर शजर से मिला

'हफ़ीज़' हो गया आख़िर अजल से हम-आग़ोश
तमाम शब का सताया हुआ सहर से मिला