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गुदाज़-ए-आतिश-ए-ग़म सीं हुई हैं बावली अँखियाँ | शाही शायरी
gudaz-e-atish-e-gham sin hui hain bawli ankhiyan

ग़ज़ल

गुदाज़-ए-आतिश-ए-ग़म सीं हुई हैं बावली अँखियाँ

अब्दुल वहाब यकरू

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गुदाज़-ए-आतिश-ए-ग़म सीं हुई हैं बावली अँखियाँ
अँझू के भाँत पानी हो के माटी में रुली अँखियाँ

करेंगी क़त्ल दिल कूँ आज तेग़-ए-अबरुवाँ-सेती
निपट ख़ूनीं हैं ज़ालिम हम नीं तेरी अटकली अँखियाँ

पय-ए-दफ़ा-ए-गज़ंद-ए-ज़ुल-फ़िक़ार अबरू तिरे मुख पर
मिज़ा कूँ कर ज़बाँ करती हैं दम नाद-ए-अली अँखियाँ

अगर देखें बहार-ए-हुस्न खिल गुल के नमन फूलें
रहीं हैं मुँद जद्दाई ये ख़िज़ाँ सीं जूँ कली अँखियाँ

नहीं दरकार कुछ ऐ ख़ुश-निगह सुरमे का दुम्बाला
मिरा दिल क़त्ल करने कूँ यू बस हैं अटकली अँखियाँ

गया है माह-रू जब सीं जुदा हो आब-ए-हैवाँ जूँ
जसे माही जुदा जल सीं तपीं यूँ तिल्मिली अँखियाँ

न होवे दर्द-ए-सर 'यकरू' कूँ पैदा गर्मी-ए-ग़म सूँ
अगर देखें पिया के मुख का रंग-ए-संदली अँखियाँ