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ग़ुबार उड़ता रहा कारवाँ रुका ही नहीं | शाही शायरी
ghubar uDta raha karwan ruka hi nahin

ग़ज़ल

ग़ुबार उड़ता रहा कारवाँ रुका ही नहीं

ज़िया फ़ारूक़ी

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ग़ुबार उड़ता रहा कारवाँ रुका ही नहीं
वो खो गया तो मुझे फिर कभी मिला ही नहीं

गवाह हैं मिरे घर के ये बाम-ओ-दर सारे
कि तेरे बा'द यहाँ दूसरा रहा ही नहीं

न कोई दर न दरीचा न रौज़न-ओ-दीवार
कहाँ से आए हवा कोई रास्ता ही नहीं

हज़ार रंग भरे लाख ख़ाल-ओ-ख़द खींचे
सरापा तेरा मुकम्मल कभी हुआ ही नहीं

तमाम रात ये आँखें तलाश करती रहीं
मिरा सितारा मगर आसमाँ पे था ही नहीं

मैं क्या करूँ ये तिरी सब्ज़ वादियाँ ले कर
यहाँ वो फूल जिसे दिल कहीं खिला ही नहीं

'ज़िया' मैं ख़ुद को ये समझा रहा हूँ बरसों से
कि ये जहान तिरे वास्ते बना ही नहीं