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ग़ुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ | शाही शायरी
ghubar-e-fikr ko tahrir karta rahta hun

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ

सलीम शुजाअ अंसारी

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ग़ुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ
मैं अपना दर्द हमा-गीर करता रहता हूँ

रिदा-ए-लफ़्ज़ चढ़ाता हूँ तुर्बत-ए-दिल पर
ग़ज़ल को ख़ाक-ए-दर-ए-'मीर' करता रहता हूँ

नबर्द-आज़मा हो कर हयात से अपनी
हमेशा फ़त्ह की तदबीर करता रहता हूँ

न जाने कौन सा ख़ाका कमाल-ए-फ़न ठहरे
हर इक ख़याल को तस्वीर करता रहता हूँ

बदलता रहता हूँ गिरते हुए दर-ओ-दीवार
मकान-ए-ख़स्ता में ता'मीर करता रहता हूँ

लहू रगों का मसाफ़त निचोड़ लेती है
मैं फिर भी ख़ुद को सफ़र-गीर करता रहता हूँ

उदास रहती हैं मुझ में सदाक़तें मेरी
मैं लब-कुशाई में ताख़ीर करता रहता हूँ

सदाएँ देती हैं 'सालिम' बुलंदियाँ लेकिन
ज़मीं को पाँव की ज़ंजीर करता रहता हूँ