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ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही | शाही शायरी
ghubar-e-dard mein rah-e-najat aisa hi

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही

शहराम सर्मदी

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ग़ुबार-ए-दर्द में राह-ए-नजात ऐसा ही
रहा है कोई मिरे साथ साथ ऐसा ही

तो भूल पाने में दुश्वारियाँ बहुत होंगी
किया है प्यार हद-ए-मुम्किनात ऐसा ही

बरस गुज़र गए उस से जुदा हुए लेकिन
अजीब बैन है मौज-ए-फ़ुरात ऐसा ही

उसे भी ओस में डूबा हुआ लगा था बदन
मुझे भी कुछ हुआ महसूस रात ऐसा ही

मैं जिस से ख़ौफ़-ज़दा था शुरूअ' से आख़िर
तमाशा कर गई ये काएनात ऐसा ही

कोई भी रंग मयस्सर न आ सका तो फिर
क़ुबूल कर लिया रंग-ए-हयात ऐसा ही