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गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे | शाही शायरी
giran guzarne laga daur-e-intizar mujhe

ग़ज़ल

गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे

असद भोपाली

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गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे

न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़गार मुझे
वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे

निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को
पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे

निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है
ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे

बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन
न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे

बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे
अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे