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घर सुलगता सा है और जलता हुआ सा शहर है | शाही शायरी
ghar sulagta sa hai aur jalta hua sa shahr hai

ग़ज़ल

घर सुलगता सा है और जलता हुआ सा शहर है

प्रकाश तिवारी

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घर सुलगता सा है और जलता हुआ सा शहर है
ज़िंदगानी के लिए अब दो-जहाँ का क़हर है

जाओ लेकिन सुर्ख़ शो'लों के सिवा पाओगे क्या
सनसनाते दश्त में काली हवा का क़हर है

दिल ये क्या जाने कि क्या शय है हरारत ख़ून की
जिस्म क्या समझे कि कैसी ज़िंदगी की लहर है

ऐ मोहब्बत मैं तिरी बेताबियों को क्या करूँ
बढ़ के चश्म-ए-यार से बरहम मिज़ाज-ए-दहर है

भर रहा हूँ किस शराब-ए-दर्द से जाम-ए-ग़ज़ल
रूह में कुचले हुए जज़्बात की इक नहर है

ज़िंदगी से भाग कर 'प्रकाश' मैं जाऊँ कहाँ
घर के बाहर क़हर है और घर के अंदर ज़हर है