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घर से निकल भी आएँ मगर यार भी तो हो | शाही शायरी
ghar se nikal bhi aaen magar yar bhi to ho

ग़ज़ल

घर से निकल भी आएँ मगर यार भी तो हो

मोहसिन जलगांवी

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घर से निकल भी आएँ मगर यार भी तो हो
जी को लगे कहीं कोई किरदार भी तो हो

ये क्या कि बर्ग-ए-ज़र्द सा टूटे बिखर गए
आँधी चले हवाओं की यलग़ार भी तो हो

सर को अबस है संग-ए-तवातुर का सामना
सहन-ए-मकाँ में शाख़-ए-समर-बार भी तो हो

अनमोल हम गुहर हैं मगर तेरे वास्ते
बिक जाएँ कोई ऐसा ख़रीदार भी तो हो

काग़ज़ की कश्तियों में समुंदर लपेट लें
पहलू में तेरे क़ुर्ब की पतवार भी तो हो

सब को उसी के लहजे की तौक़ीर चाहिए
'मोहसिन' किसी को मीर सा आज़ार भी तो हो