घर से जो शख़्स भी निकले वो सँभल कर निकले
जाने किस मोड़ पे किस हाथ में ख़ंजर निकले
मोजज़ा बन गई क्या आज मिरी तिश्ना-लबी
एक क़तरे के तले कितने समुंदर निकले
गिर गया हो जो फ़सीलों को उठा कर ख़ुद ही
कैसे अब अपने हिसारों से वो बाहर निकले
रहबरो तुम ने तो मंज़िल का पता भी न दिया
तुम से बेहतर तो मिरी राह के पत्थर निकले
उम्र भर ज़ेहन में चुभता रहा इक नश्तर-ए-ग़म
जितने एहसास थे सब मेरा मुक़द्दर निकले
तुम से छोड़ी न गई राह-ए-वफ़ा फिर भी 'हयात'
कितने बे-दर्द मिले कितने सितमगर निकले

ग़ज़ल
घर से जो शख़्स भी निकले वो सँभल कर निकले
मसूदा हयात