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घर को यूँ तोड़ो कि फिर हसरत-ए-तामीर न हो | शाही शायरी
ghar ko yun toDo ki phir hasrat-e-tamir na ho

ग़ज़ल

घर को यूँ तोड़ो कि फिर हसरत-ए-तामीर न हो

ख़लील मामून

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घर को यूँ तोड़ो कि फिर हसरत-ए-तामीर न हो
कोई तक़दीर न हो और कोई तदबीर न हो

ऐसे मर जाएँ कोई नक़्श न छोड़ें अपना
याद दिल में न हो अख़बार में तस्वीर न हो

बैठे बैठे यूँही अँधियारे में ज़ाइल हो जाएँ
कोई दम-साज़ न हो कोई ख़बर-गीर न हो

नींद में तितलियाँ आँखों में लहकती जाएँ
ख़्वाब देखें मगर उस ख़्वाब की ताबीर न हो

कौन सनता है मिरे शेर यहाँ अब 'मामून'
ऐन-मुमकिन है मिरी बात में तासीर न हो