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गज़क की इस क़दर ऐ मस्त तुझ को क्या शिताबी है | शाही शायरी
gazak ki is qadar ai mast tujhko kya shitabi hai

ग़ज़ल

गज़क की इस क़दर ऐ मस्त तुझ को क्या शिताबी है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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गज़क की इस क़दर ऐ मस्त तुझ को क्या शिताबी है
हमारा भी दिल सद-लख़्त-ए-दूकान-ए-कबाबी है

नहीं जुज़ क़ुर्स महर-ओ-माह कुछ गर्दूं के मतबख़ में
सो वो भी एक नान-ए-सोख़्ता और एक आबी है

छुड़ा मश्शाता ज़ुल्फ़-ए-यार को शाने के नीचे से
कि उस की कश्मकश से दिल को मेरे पेच-ओ-ताबी है

बदन पर कुछ मिरे ज़ाहिर नहीं और दिल में सोज़िश है
ख़ुदा जाने ये किस ने राख अंदर आग दाबी है

शिकस्त आती है इस में मौज-ए-मय से देखियो साक़ी
बचाना ठेस से शीशा मिरे दिल का हबाबी है

रहे है काम हम को रोज़-ओ-शब क़ुरआन ओ मस्जिद से
कि अबरू उस की है मेहराब और चेहरा किताबी है

किसू के अबलक़-ए-अय्याम चढ़ने का नहीं राज़ी
अज़ल से 'हातिम' इस तौसन में ऐब-ए-बद-रिकाबी है