गया वो ख़्वाब-ए-हक़ीक़त को रू-ब-रू कर के
बहुत उदास हूँ मैं उन से गुफ़्तुगू कर के
अभी न छोड़ क़बा-ए-उमीद का दामन
अभी तो ज़ख़्म छुपा चाक-ए-दिल रफ़ू कर के
करो न दफ़्न कि मक़्तल का नाम ऊँचा हो
लिटा दो ख़ाक पे लाशे को क़िबला-रू कर के
उन्हीं में माह-सिफ़त भी हैं मेहर-आसा भी
मिले हैं दाग़ कई उन की आरज़ू कर के
उठो 'नईम' कि बाग़-ए-अदम से हो आएँ
वहीं गए हैं 'तपिश' दिल को यूँ लहू कर के
ग़ज़ल
गया वो ख़्वाब-ए-हक़ीक़त को रू-ब-रू कर के
हसन नईम