EN اردو
गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था | शाही शायरी
gawahi kaise TuTti muamla KHuda ka tha

ग़ज़ल

गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था

परवीन शाकिर

;

गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था
मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था

गुलाब क़ीमत-ए-शगुफ़्त शाम तक चुका सके
अदा वो धूप को हुआ जो क़र्ज़ भी सबा का था

बिखर गया है फूल तो हमीं से पूछ-गछ हुई
हिसाब बाग़बाँ से है किया-धरा हवा का था

लहू-चशीदा हाथ उस ने चूम कर दिखा दिया
जज़ा वहाँ मिली जहाँ कि मरहला सज़ा का था

जो बारिशों से क़ब्ल अपना रिज़्क़ घर में भर चुका
वो शहर-ए-मोर से न था प दूरबीं बला का था