ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
बे-मुरव्वत तुझे कुछ शर्म ओ हया भी आई
मौसम-ए-हुस्न तो था फ़स्ल-ए-जफ़ा भी आई
साथ ही साथ जवानी की अदा भी आई
दम का आँखों में अटकना भी मुबारक न हुआ
वक़्त की बात तुम आए तो क़ज़ा भी आई
मैं शब-ए-वस्ल ये समझा कि सहर भी कुछ है
वो जो आए तो मोअज़्ज़िन की सदा भी आई
उन मरीज़ों की अयादत को वो अब निकले हैं
मौत जा कर जिन्हें मिट्टी में मिला भी आई
कर दिया सोज़-ए-दरूँ ने मुझे शम्अ सर-ए-बज़्म
बन गई दम पे अगर पास हवा भी आई
कान यूँ उन के भरे हैं मिरी फ़रियादों ने
नाले समझे जो कोई और सदा भी आई
फिर भी 'साक़िब' न उड़ी ताला-ए-ख़ुफ़्ता की नींद
आह जा कर मिरी गर्दूं को हिला भी आई
ग़ज़ल
ग़श भी आया मिरी पुर्सिश को क़ज़ा भी आई
साक़िब लखनवी