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गर्म ज़मीं पर आ बैठे हैं ख़ुश्क लब-ए-महरूम लिए | शाही शायरी
garm zamin par aa baiThe hain KHushk lab-e-mahrum liye

ग़ज़ल

गर्म ज़मीं पर आ बैठे हैं ख़ुश्क लब-ए-महरूम लिए

रईस फ़रोग़

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गर्म ज़मीं पर आ बैठे हैं ख़ुश्क लब-ए-महरूम लिए
पानी की इक बूँद न पाई बादल बादल घूम लिए

सज रहे होंगे नाज़ुक पौदे चल रही होगी नर्म हवा
तन्हा घर में बैठे बैठे सोच लिया और झूम लिए

आँगन की मानूस फ़ज़ा में ख़्वाबों ने ज़ंजीर बुनी
बाद में झुक कर अपने साए दीवारों ने चूम लिए

मैं ने कितने रस्ते बदले लेकिन हर रस्ते में 'फ़रोग़'
एक अंधेरा साथ रहा है रौशनियों के हुजूम लिए