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गर्दिश में ज़हर भी है मुसलसल लहू के साथ | शाही शायरी
gardish mein zahr bhi hai musalsal lahu ke sath

ग़ज़ल

गर्दिश में ज़हर भी है मुसलसल लहू के साथ

शकील जाज़िब

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गर्दिश में ज़हर भी है मुसलसल लहू के साथ
मरता भी जा रहा हूँ मैं अपनी नुमू के साथ

जिन मौसमों में तेरी रिफ़ाक़त थी ना-गुज़ीर
तू ने रुतें बनाई हैं वो भी अदू के साथ

मुझ को अता हुआ है ये कैसा लिबास-ए-ज़ीस्त
बढ़ते हैं जिस के चाक बराबर रफ़ू के साथ

मुझ को वही मिला मुझे जिस की तलब न थी
मशरूत कुछ नहीं है यहाँ आरज़ू के साथ

अब जाम-ए-जम से लोग यहाँ मुतमइन नहीं
'जाज़िब' गुज़र रही है शिकस्ता सुबू के साथ