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गर्दिश-ए-जाम भी है रक़्स भी है साज़ भी है | शाही शायरी
gardish-e-jam bhi hai raqs bhi hai saz bhi hai

ग़ज़ल

गर्दिश-ए-जाम भी है रक़्स भी है साज़ भी है

राम कृष्ण मुज़्तर

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गर्दिश-ए-जाम भी है रक़्स भी है साज़ भी है
जिस में नग़्मों का तलातुम है वो आवाज़ भी है

इतना सादा भी उसे ऐ दिल-ए-पुर-शौक़ न जान
इल्तिफ़ात एक निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ भी है

मुद्दआ' उन का समझ में नहीं आता ऐ दिल
बे-सबब है ये तग़ाफ़ुल कि कोई राज़ भी है

ग़र्क़-ए-कैफ़ियत-ए-आहंग-ए-तरब सुन तो सही
ज़िंदगी दर्द में डूबी हुई आवाज़ भी है

तोड़ डालेंगे क़फ़स आज असीरान-ए-क़फ़स
अज़्म-ए-परवाज़ भी है क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ भी है

मेरी आँखों से ढलकते हुए हर अश्क में आज
अक्स-ए-अंजाम भी है सूरत-ए-आग़ाज़ भी है

कौन जाने ये मिरे दिल के सिवा ऐ 'मुज़्तर'
उस की इक जुम्बिश-ए-लब सिलसिला-ए-राज़ भी है