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गर्दिश-ए-अर्ज़-ओ-समावात ने जीने न दिया | शाही शायरी
gardish-e-arz-o-samawat ne jine na diya

ग़ज़ल

गर्दिश-ए-अर्ज़-ओ-समावात ने जीने न दिया

कैफ़ भोपाली

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गर्दिश-ए-अर्ज़-ओ-समावात ने जीने न दिया
कट गया दिन तो हमें रात ने जीने न दिया

कुछ मोहब्बत को न था चैन से रखना मंज़ूर
और कुछ उन की इनायात ने जीने न दिया

हादसा है कि तिरे सर पे न इल्ज़ाम आया
वाक़िआ है कि तिरी ज़ात ने जीने न दिया

'कैफ़' के भूलने वाले को ख़बर हो कि उसे
सदमा-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात ने जीने न दिया