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गर्द में अट रहे हैं एहसासात | शाही शायरी
gard mein aT rahe hain ehsasat

ग़ज़ल

गर्द में अट रहे हैं एहसासात

रईस अमरोहवी

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गर्द में अट रहे हैं एहसासात
धीमे धीमे बरस रही है रात

जल उठा इक चराग़-ए-शाम तो क्या
बुझ गए बे-शुमार इम्कानात

हाए माज़ी की दिल-नशीं यादें
हाए खूँ-ख़्वार भेड़ियों की बरात

च्यूंटियाँ जैसे ज़ेहन पर रेंगें
उफ़ ये मेरे लतीफ़ एहसासात

भूत बन कर मुझे डराती रहीं
मेरी ना-आफ़्रीदा तख़लीक़ात

कौन आया मिरे तआ'क़ुब में
वही फ़िक्र-ओ-ख़याल के जिन्नात

दफ़अ'तन किस ने क़हक़हा मारा
ये अँधेरे में कौन है मिरे सात

सरसर-ए-शब कहाँ कि पत्तों में
कर्ब-ए-ग़म से कराहती है हयात

मुझ से मुझ को न छीन कर ले जाए
शाहज़ादी-ए-किश्वर-ए-ज़ुल्मात

सुब्ह जागा तो याद भी न रहा
रात थी चाँदनी कि चाँदनी रात

तूदा-ए-रेग ओ नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-चिनार
छुप गई किस की ओट में बरसात

ये दरख़्त-ए-कुहन लिसान‌‌-उल-ग़ैब
और ये शाख़-ए-ख़ुश्क बर्ग-ए-नबात

क्या यही है 'रईस'-अमरोहवी
उड़ के आए हैं दूर से ज़र्रात