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ग़रज़ रहबर से क्या मुझ को गिला है जज़्ब-ए-कामिल से | शाही शायरी
gharaz rahbar se kya mujhko gila hai jazb-e-kaamil se

ग़ज़ल

ग़रज़ रहबर से क्या मुझ को गिला है जज़्ब-ए-कामिल से

जगत मोहन लाल रवाँ

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ग़रज़ रहबर से क्या मुझ को गिला है जज़्ब-ए-कामिल से
कि जितना बढ़ रहा हूँ हट रहा हूँ दूर मंज़िल से

सुकूत-ए-बे-महल तक़रीर-ए-बे-मौक़ा की तोहमत क्यूँ
उठाना हो तो यूँ हम को उठा दो अपनी महफ़िल से

ये अरमान-ए-तरक़्क़ी आज है दावा ख़ुदाई का
उसी दिल का जो कल तक था लहू की बूँद मुश्किल से

गुल-ओ-लाला पे आख़िर कर रहा है ग़ौर क्या गुलचीं
ये वो ख़ूँ है जो टपका था कभी चश्म-ए-अनादिल से

शब-ए-महताब दरिया का किनारा और ये सन्नाटा
तुम्हें इस साज़ पर हम ख़ुश करेंगे नग़्मा-ए-दिल से

ग़ज़ब है जल के परवानों का उन की बज़्म में कहना
'रवाँ' या यूँ फ़िदा हो जाओ या उठ जाओ महफ़िल से