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गर यही वज़्अ है और हैं यही हैहात नसीब | शाही शायरी
gar yahi waza hai aur hain yahi haihat nasib

ग़ज़ल

गर यही वज़्अ है और हैं यही हैहात नसीब

मिरज़ा हैदर अली हैरान

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गर यही वज़्अ है और हैं यही हैहात नसीब
तो हमें हो चुकी बस उस से मुलाक़ात नसीब

हम लब-ए-गोर हुए ख़ूँ-ब-जिगर इस ग़म से
करनी उस ग़ुंचा-दहन से न हुई बात नसीब

सुब्ह हर रोज़ इसी ग़म में हमें होती है शाम
आह जागेंगे मिरे कौन सी अब रात नसीब

कुछ हमें शिकवा नहीं जौर से तेरे हरगिज़
हम हमेशा से हैं ऐ जान कुछ आफ़ात नसीब

मस्जिदों में फिरे नित सुब्हा फिराते 'हैराँ'
शैख़ जी पर न हुई तुम को करामात नसीब