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ग़म नहीं नाज़-ए-हुस्न है हुस्न के नाज़ उठाए जा | शाही शायरी
gham nahin naz-e-husn hai husn ke naz uThae ja

ग़ज़ल

ग़म नहीं नाज़-ए-हुस्न है हुस्न के नाज़ उठाए जा

बिस्मिल सईदी

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ग़म नहीं नाज़-ए-हुस्न है हुस्न के नाज़ उठाए जा
ऐ दिल-ए-मुब्तला-ए-ग़म ग़म में भी मुस्कुराए जा

हुस्न है इश्क़-ए-आफ़रीं हुस्न पे दिल लुटाए जा
इश्क़ को दर्द-ए-दिल बना दर्द को दिल बनाए जा

जल्वा-ब-जल्वा गर नहीं पर्दा-ब-पर्दा आए जा
दिल में मिरे समाए जा रूह में जगमगाए जा

शोरिश-ए-काएनात में ग़म को ख़ुशी बनाए जा
हँस मिरे आँसुओं में तू आह में मुस्कुराए जा

तारों में जगमगाए जा चाँद में मुस्कुराए जा
दूर से कोई नग़्मा-ए-रूह-फ़ज़ा सुनाए जा

ज़ब्त ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ है ज़र्फ़ ब-क़द्र-ए-शौक़ है
तू अभी सामने न आ शौक़ अभी बढ़ाए जा

बाहमा तर्क-ए-रस्म-ओ-राह कुछ तो हो इल्तिफ़ात भी
तू मुझे भूल जा मगर याद मुझे तू आए जा

हुस्न से बढ़ के बद-गुमाँ इश्क़ है अपने आप से
मैं अभी मुतमइन नहीं तू मुझे आज़माए जा

सिर्फ़ जबीन-ए-शौक़ हो और किसी का आस्ताँ
सज्दे भी दरमियाँ न हूँ सज्दों को भी मिटाए जा

बज़्म-ए-नशात-ए-काएनात मुझ पे है ख़ंदा-ज़न हनूज़
ख़ल्वत-ए-ग़म में तू अभी और मुझे रुलाए जा

अब न वो 'बिस्मिल' और न तू अब न वो दिल न आरज़ू
अब तो ख़ुदा के वास्ते याद उसे न आए जा