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ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे | शाही शायरी
gham ki garmi se dil pighalte rahe

ग़ज़ल

ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे

अर्श सिद्दीक़ी

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ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे
तजरबे आँसुओं में ढलते रहे

एक लम्हे को तुम मिले थे मगर
उम्र भर दिल को हम मसलते रहे

सुब्ह के डर से आँख लग न सकी
रात भर करवटें बदलते रहे

ज़हर था ज़िंदगी के कूज़े में
जानते थे मगर निगलते रहे

दिल रहा सरख़ुशी से बेगाना
गरचे अरमाँ बहुत निकलते रहे

अपना अज़्म-ए-सफ़र न था अपना
हुक्म मिलता रहा तो चलते रहे

ज़िंदगी सरख़ुशी जुनूँ वहशत
मौत के नाम क्यूँ बदलते रहे

हो गए जिन पे कारवाँ पामाल
सब उन्ही रास्तों पे चलते रहे

दिल ही गर बाइस-ए-हलाकत था
रुख़ हवाओं के क्यूँ बदलते रहे

हो गए ख़ामुशी से हम रुख़्सत
सारे अहबाब हाथ मलते रहे

हर ख़ुशी 'अर्श' वजह-ए-दर्द बनी
फ़र्श-ए-शबनम पे पाँव जलते रहे