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ग़म के बादल फिर भी छाए रह गए | शाही शायरी
gham ke baadal phir bhi chhae rah gae

ग़ज़ल

ग़म के बादल फिर भी छाए रह गए

आनंद नारायण मुल्ला

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ग़म के बादल फिर भी छाए रह गए
आँख से दरिया के दरिया बह गए

ख़ौफ़-ए-उक़्बा और इस दुनिया के बा'द
वो भी सह लेंगे जो ये ग़म सह गए

किस ने देखा है जमाल-ए-रू-ए-दोस्त
सब नक़ाबों में उलझ कर रह गए

मुख़्तसर थी दास्तान-ए-अर्ज़-ए-शौक़
बुझ के कुछ तारे मिज़ा पर रह गए

ज़ीस्त है इक शाम अफ़्साने का नाम
अपनी अपनी दास्ताँ सब कह गए

तब कहीं जा कर मिली सत्ह-ए-सुकूँ
डूब कर जब ग़म में तह-दर-तह गए

वार कर के ज़ीस्त भागी और हम
आस्तीं अपनी चढ़ाते रह गए

चंद शैताँ बंद कर के ख़ुश हैं यूँ
जैसे बाहर सब फ़रिश्ते रह गए

अश्क बन पाए न ग़म के तर्जुमाँ
ये नुमाइश ही में अपनी रह गए

ज़िंदगी से लड़ न पाया जोश-ए-दिल
पर बहुत तोले मगर रह रह गए

अश्क थे जब तक फ़रोज़ाँ ग़म न था
अब अँधेरे में अकेले रह गए

जेबें सब यारों ने भर लीं बज़्म में
एक 'मुल्ला' थे जो यूँही रह गए