ग़म के बादल दिल-ए-नाशाद पे ऐसे छाए
साया-ए-गुल में भी हमराज़ न हँसने पाए
यूँ तसव्वुर में दबे पाँव तिरी याद आई
जिस तरह शाम की बाँहों में सितारे आए
वक़्त की धूप में हम साया-ए-हसरत बन कर
दो घड़ी कू-ए-तमन्ना में न चलने पाए
ज़िंदगी मौज-ए-तलातुम की तरह रुक न सकी
यूँ तो हर मोड़ पे तूफ़ान हज़ारों आए
इस से मंज़िल का पता पूछ रही है दुनिया
जिस का मंज़िल के तसव्वुर से भी जी घबराए
'राज़' एहसास के आँगन में हों तन्हा तन्हा
घुप अंधेरा है मगर साथ हैं ग़म के साए
ग़ज़ल
ग़म के बादल दिल-ए-नाशाद पे ऐसे छाए
अतहर राज़