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ग़म-ए-जानाँ से रंगीं और कोई ग़म नहीं होता | शाही शायरी
gham-e-jaanan se rangin aur koi gham nahin hota

ग़ज़ल

ग़म-ए-जानाँ से रंगीं और कोई ग़म नहीं होता

फ़िगार उन्नावी

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ग़म-ए-जानाँ से रंगीं और कोई ग़म नहीं होता
कि इस के दर्द में एहसास-ए-बेश-ओ-कम नहीं होता

वो हैं कम-ज़र्फ़ जिन का शोर-ए-नाला कम नहीं होता
चमन में फूल भी तो हैं उन्हें क्या ग़म नहीं होता

कमाल-ए-ज़ब्त-ए-गिर्या अज़्मत-ए-शान-ए-मोहब्बत है
छलक जाए जो पैमाना वो जाम-ए-जम नहीं होता

यहाँ तक दिल को आदत हो गई है बे-क़रारी की
सुकून-ए-ज़िंदगी में भी तड़पना कम नहीं होता

तुम्हारी याद ही के साथ धड़कन बढ़ गई दिल की
तसव्वुर से मिज़ाज-ए-हुस्न तो बरहम नहीं होता

ख़िज़ाँ की उलझनें गुलचीं का खटका है मगर फिर भी
कली का बाग़ में लुत्फ़-ए-तबस्सुम कम नहीं होता

कुछ ऐसी बात है सय्याद जो हम मुस्कुराते हैं
नहीं तो आशियाँ लुटने का किस को ग़म नहीं होता

न जाने क्यूँ तुम्हारे ग़म को दुनिया ग़म समझती है
मसर्रत से तो इस का मर्तबा कुछ कम नहीं होता

'फ़िगार' इस गुलशन-ए-हस्ती का इबरत-ख़ेज़ आलम है
कि शबनम रो रही है गुल का हँसना कम नहीं होता