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ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर | शाही शायरी
gham-e-ishq rah gaya hai gham-e-justuju mein Dhal kar

ग़ज़ल

ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर

शकील बदायुनी

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ग़म-ए-इश्क़ रह गया है ग़म-ए-जुस्तुजू में ढल कर
वो नज़र से छुप गए हैं मिरी ज़िंदगी बदल कर

तिरी गुफ़्तुगू को नासेह दिल-ए-गम-ज़दा से जल कर
अभी तक तो सुन रहा था मगर अब सँभल सँभल कर

न मिला सुराग़-ए-मंज़िल कभी उम्र भर किसी को
नज़र आ गई है मंज़िल कभी दो क़दम ही चल कर

ग़म-ए-उम्र-ए-मुख़्तसर से अभी बे-ख़बर हैं कलियाँ
न चमन में फेंक देना किसी फूल को मसल कर

हैं किसी के मुंतज़िर हम मगर ऐ उमीद-ए-मुबहम
कहीं वक़्त रह न जाए यूँही करवटें बदल कर

मिरे दिल को रास आया न जुमूद-ओ-ग़ैर-फ़ानी
मिली राह-ए-ज़िंदगानी मुझे ख़ार से निकल कर

मिरी तेज़-गामियों से नहीं बर्क़ को भी निस्बत
कहीं खो न जाए दुनिया मिरे साथ साथ चल कर

कभी यक-ब-यक तवज्जोह कभी दफ़अ'तन तग़ाफ़ुल
मुझे आज़मा रहा है कोई रुख़ बदल बदल कर

हैं 'शकील' ज़िंदगी में ये जो वुसअ'तें नुमायाँ
इन्हीं वुसअतों से पैदा कोई आलम-ए-ग़ज़ल कर