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ग़म-ए-दुनिया नहीं फिर कौन सा ग़म है हम को | शाही शायरी
gham-e-duniya nahin phir kaun sa gham hai hum ko

ग़ज़ल

ग़म-ए-दुनिया नहीं फिर कौन सा ग़म है हम को

दत्तात्रिया कैफ़ी

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ग़म-ए-दुनिया नहीं फिर कौन सा ग़म है हम को
फ़िक्र-ओ-अंदेशा-ए-उक़बा से भी रम है हम को

दहन-ए-ग़ुन्चा से पैग़ाम-ए-वफ़ा सुनते हैं
ग़ाज़ा-ए-आरिज़-ए-सद-हस्त-ए-अदम है हम को

क़ौल ये सच है कि ख़ुद-कर्दा का दरमाँ क्या है
दावर-ए-हश्र पे नाहक़ का भरम है हम को

अगले लुक़्मों में नहीं क़ंद-ए-मुकर्रर का मज़ा
सख़्त बे-लुत्फ़-ए-हयात-ए-पैहम है हम को

ज़ीस्त की कश्मकश और मर्ग की क़ुर्बत का अलम
आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स तेग़-ए-दो-दम है हम को

बैठे बैठे जो कटे फिर तग-ओ-दौ से हासिल
हर-नफ़स जादा-ए-हस्ती में क़दम है हम को

ज़र्रे ज़र्रे में नज़र आती है तस्वीर-ए-सनम
सर-ब-सर रू-कश-ए-सद-दैर-ओ-हरम है हम को

बार-ए-ग़म बार से एहसाँ के बदल जाता है
तौक़-ए-गर्दन कशिश-ए-काफ़-ए-करम है हम को

हाल-ए-दिल लिखते न लोगों की ज़बाँ में पड़ते
वज्ह-ए-अंगुश्त-नुमाई ये क़लम है हम को

आँख क्या डालिए उस गुल पे जो कुम्हला जाए
'कैफ़ी' अपना ही ये दिल बाग़-ए-इरम है हम को