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गली कूचों में जब सब जल-बुझा आहिस्ता आहिस्ता | शाही शायरी
gali kuchon mein jab sab jal-bujha aahista aahista

ग़ज़ल

गली कूचों में जब सब जल-बुझा आहिस्ता आहिस्ता

सय्यद मुनीर

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गली कूचों में जब सब जल-बुझा आहिस्ता आहिस्ता
घरों से कुछ धुआँ उठता रहा आहिस्ता आहिस्ता

कई बेचैनियों की शिद्दत-ए-इज़हार की ख़ातिर
मुझे हर लफ़्ज़ पर रुकना पड़ा आहिस्ता आहिस्ता

अदम हस्ती फ़ना और फिर बक़ा इक दायरा सा है
समझ में आ ही जाएगा ख़ुदा आहिस्ता आहिस्ता

मसीहाई की सुब्हों सब्र की रातों के आँगन में
लहू बहता रहा बहता रहा आहिस्ता आहिस्ता

फ़सील-ए-शहर बनते ही चले आए अलम उस के
मिरी पहचान का परचम खुला आहिस्ता आहिस्ता

इताअत में भी तहरीम-ए-अना की फ़िक्र लाज़िम है
सर-ए-तस्लीम भी अपना झुका आहिस्ता आहिस्ता

'मुनीर' अहल-ए-तहम्मुल का जुनूँ से वास्ता क्या है
मोहब्बत जुरआ' जुरआ' और वफ़ा आहिस्ता आहिस्ता