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ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़ | शाही शायरी
ghalat-bayan ye faza mahr o kin darogh darogh

ग़ज़ल

ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़

अज़ीज़ हामिद मदनी

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ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
शराब लाओ ग़म-ए-कुफ़्र-ओ-दीं दरोग़ दरोग़

हज़ार नख़्ल-ए-गुमाँ हैं अभी नुमूद-आसार
अज़ल के दिन से है किश्त-ए-यक़ीं दरोग़ दरोग़

हदीस-ए-रश्क-ए-रक़ीबाँ हुई है जिस की नज़र
मैं और उस की लगन हम-नशीं दरोग़ दरोग़

ख़ुद अपनी मस्ती-ए-पिन्हाँ से हाथ आता है
शिकार-ए-नाफ़ा-ए-आहू-ए-चीं दरोग़ दरोग़

मैं और शिकवा-सराई-ए-ज़ख़्म-ए-बे-सबबी
तू और दशना तह-ए-आस्तीं दरोग़ दरोग़

ज़रूर कोई नज़र है हरीफ़-ए-ख़ुद-निगरी
वो और बज़्म में चीं-बर-जबीं दरोग़ दरोग़

मलूल कुछ ग़म-ए-बालीदगी से है वर्ना
सिरिश्त-ए-गुल को मलाल-ए-ज़मीं दरोग़ दरोग़

सदाएँ दीं तुझे ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ने मक़्तल से
तिरी गली में ख़बर तक नहीं दरोग़ दरोग़