ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
शराब लाओ ग़म-ए-कुफ़्र-ओ-दीं दरोग़ दरोग़
हज़ार नख़्ल-ए-गुमाँ हैं अभी नुमूद-आसार
अज़ल के दिन से है किश्त-ए-यक़ीं दरोग़ दरोग़
हदीस-ए-रश्क-ए-रक़ीबाँ हुई है जिस की नज़र
मैं और उस की लगन हम-नशीं दरोग़ दरोग़
ख़ुद अपनी मस्ती-ए-पिन्हाँ से हाथ आता है
शिकार-ए-नाफ़ा-ए-आहू-ए-चीं दरोग़ दरोग़
मैं और शिकवा-सराई-ए-ज़ख़्म-ए-बे-सबबी
तू और दशना तह-ए-आस्तीं दरोग़ दरोग़
ज़रूर कोई नज़र है हरीफ़-ए-ख़ुद-निगरी
वो और बज़्म में चीं-बर-जबीं दरोग़ दरोग़
मलूल कुछ ग़म-ए-बालीदगी से है वर्ना
सिरिश्त-ए-गुल को मलाल-ए-ज़मीं दरोग़ दरोग़
सदाएँ दीं तुझे ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ने मक़्तल से
तिरी गली में ख़बर तक नहीं दरोग़ दरोग़
ग़ज़ल
ग़लत-बयाँ ये फ़ज़ा महर ओ कीं दरोग़ दरोग़
अज़ीज़ हामिद मदनी