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गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके | शाही शायरी
gae dinon ki raqabat ko wo bhula na sake

ग़ज़ल

गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके

अहमद अशफ़ाक़

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गए दिनों की रक़ाबत को वो भुला न सके
शरीक-ए-बज़्म थे लेकिन नज़र मिला न सके

अज़ाब-ए-हिज्र के लम्हात हम भुला न सके
दयार-ए-ग़ैर में इक पल सुकून पा न सके

बहुत बईद न था मसअलों का हल होना
अना के पाँव से ज़ंजीर हम हटा न सके

तअल्लुक़ात में हद-दर्जा एहतियात रही
क़रीब आ न सके वो मुझे भुला न सके

फ़रेब खा गए तब जा के इंकिशाफ़ हुआ
क़रीब रह के भी हम उन को आज़मा न सके