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गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं | शाही शायरी
gada dast-e-ahl-e-karam dekhte hain

ग़ज़ल

गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं

मोहम्मद रफ़ी सौदा

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गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
हम अपना ही दम और क़दम देखते हैं

न देखा जो कुछ जाम में जम ने अपने
सो यक क़तरा-ए-मय में हम देखते हैं

ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
तुझे तेरी खा कर क़सम देखते हैं

ग़रज़ कुफ़्र से कुछ न दीं से है मतलब
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं

हुबाब-ए-लब-ए-जू हैं ऐ बाग़बाँ हम
चमन को तिरे कोई दम देखते हैं

नविश्ते को मेरे मिटाते हैं रो रो
मलाएक जो लौह ओ क़लम देखते हैं

मिटा जाए है हर्फ़ हर्फ़ आँसुओं से
जो नामा उसे कर रक़म देखते हैं

अकड़ से नहीं काम सुम्बुल की हम को
किसी ज़ुल्फ़ का पेच ओ ख़म देखते हैं

ख़ुदा दुश्मनों को न वो कुछ दिखाए
जो कुछ दोस्त से अपने हम देखते हैं

सितम से किया तू ने हम को जो ख़ूगर
करम से तिरे हम सितम देखते हैं

मगर तुझ से रंजीदा-ख़ातिर है 'सौदा'
उसे तेरे कूचे में कम देखते हैं