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फ़ुग़ाँ के साथ तिरे राहत-ए-क़रार चले | शाही शायरी
fughan ke sath tere rahat-e-qarar chale

ग़ज़ल

फ़ुग़ाँ के साथ तिरे राहत-ए-क़रार चले

नज़र हैदराबादी

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फ़ुग़ाँ के साथ तिरे राहत-ए-क़रार चले
नवा-गरान-ए-वफ़ा हिम्मतों को हार चले

ये क्या कि फूल खिले और ज़ख़्म रिसने लगे
मिले सुकूँ भी अगर बाद-ए-नौ-बहार चले

ये मुल्तफ़ित सी निगाहें फ़रोग़-ए-जाम के साथ
चले ये दौर चले और बार-बार चले

हज़ार बरहमी-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार भी देखी
तुझे तो काकुल-ए-गीती मगर सँवार चले

ख़याल-ओ-इल्म का भी मोल-तोल होता है
हमारे अहद में क्या क्या न कारोबार चले

हयात साथ चली काएनात साथ चली
अजीब शान से कुछ लोग सू-ए-दार चले

वही तो थे कभी चश्म-ओ-चराग़-ए-महफ़िल-ए-ग़म
जो बे-क़रार से उट्ठे जो अश्क-बार चले

थके थके से क़दम और तवील राह-ए-हयात
मुसाफ़िरान-ए-अदम बोझ सा उतार चले

ज़मीन-ए-फ़ैज़ सितारे लुटा रही है 'नज़र'
ये क्या कि आप यहाँ से भी सोगवार चले