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फ़ुग़ान-ए-दर्द में भी दर्द की ख़लिश ही नहीं | शाही शायरी
fughan-e-dard mein bhi dard ki KHalish hi nahin

ग़ज़ल

फ़ुग़ान-ए-दर्द में भी दर्द की ख़लिश ही नहीं

आल-ए-अहमद सूरूर

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फ़ुग़ान-ए-दर्द में भी दर्द की ख़लिश ही नहीं
दिलों में आग लगी है मगर तपिश ही नहीं

कहाँ से लाएँ वो सोज़-ओ-गुदाज़ दिल वाले
कि दिलबरी का वो आहंग वो रविश ही नहीं

हक़ीक़तों के भी तेवर बदल तो सकते हैं
हमारी बज़्म में ख़्वाबों की वो ख़लिश ही नहीं

दिमाग़ क्यूँ न हो साहिल पे सोने वालों का
कभी कभार जो तूफ़ाँ की सरज़निश ही नहीं

लुभाएगा उसे क्या चाँद का ख़ुनुक जादू
जिसे नसीब कड़ी धूप की तपिश ही नहीं

ज़माना क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन को भूल न जाए
किसी के हल्क़ा-ए-गेसू में वो कशिश ही नहीं

ये रंग-ओ-बू के तिलिस्मात किस लिए हैं 'सुरूर'
बहार क्या है जुनूँ की जो परवरिश ही नहीं