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फ़ज़ा में ज़ुल्फ़ के जादू अगर बिखर जाते | शाही शायरी
faza mein zulf ke jadu agar bikhar jate

ग़ज़ल

फ़ज़ा में ज़ुल्फ़ के जादू अगर बिखर जाते

मुसव्विर सब्ज़वारी

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फ़ज़ा में ज़ुल्फ़ के जादू अगर बिखर जाते
हवा के साथ बहुत लोग दर-ब-दर जाते

भला हुआ कि हुई जिंस-ए-ग़म की अर्ज़ानी
हम अपने दाग़ दिखाने नगर नगर जाते

न जलता कोई चराग़-ए-सदा तो सब सर-ए-शाम
लिपट के अपने घरों के सुतूँ से मर जाते

इक ऐसा लम्हा-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ भी गुज़रा है
मुझे जो देखते इस लम्हा तुम तो डर जाते

हमें न रोक रवाँ हैं मिसाल-ए-पारा-ए-अब्र
हमारे बस में जो होता तो हम ठहर जाते

'मुसव्विर' आ के न ठहरा कोई भी ख़्वाबों में
उदास रातों की आँखों में रंग भर जाते