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फ़ज़ा में कैफ़-फ़शाँ फिर सहाब है साक़ी | शाही शायरी
faza mein kaif-fashan phir sahab hai saqi

ग़ज़ल

फ़ज़ा में कैफ़-फ़शाँ फिर सहाब है साक़ी

चरख़ चिन्योटी

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फ़ज़ा में कैफ़-फ़शाँ फिर सहाब है साक़ी
फिर अपने रंग पे दौर-ए-शबाब है साक़ी

ये तल्ख़ यादें कम-अज़-कम भुला तो देती है
शराब कुछ भी हो आख़िर शराब है साक़ी

जो अपनी हस्ती की मस्ती मिटा के आता है
तिरे हुज़ूर वही बारयाब है साक़ी

ग़म-ए-फ़िराक़ ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-दुनिया
शराब सारे ग़मों का जवाब है साक़ी

तिरी निगाहों से मयख़ाने जाम भरते हैं
तिरी निगाहों का कोई जवाब है साक़ी

ब-क़ौल-ए-'चर्ख़' यहाँ मस्तियाँ उभरती हैं
ये मय-कदा तो जहान-ए-शबाब है साक़ी