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फ़ज़ा-ए-ज़ेहन की जलती हवा बदलने तक | शाही शायरी
faza-e-zehn ki jalti hawa badalne tak

ग़ज़ल

फ़ज़ा-ए-ज़ेहन की जलती हवा बदलने तक

संजय मिश्रा शौक़

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फ़ज़ा-ए-ज़ेहन की जलती हवा बदलने तक
मैं बुझ न जाऊँ लिहाफ़-ए-अना बदलने तक

चराग़-ए-जिस्म में इस बार बुझ न जाऊँ मैं
हवा-ए-खेमा-ए-शब की रिदा बदलने तक

फिर आज कूफ़े से हिजरत बहुत ज़रूरी है
पलट के आएँगे आब-ओ-हवा बदलने तक

अजीब लोग हैं दुनिया तिरी हवस के लिए
तुले हुए हैं ख़ुद अपना ख़ुदा बदलने तक

कशीद करते हैं ज़िंदाँ की वादियों से उमीद
क़फ़स बदलने हैं ज़ंजीर-ए-पा बदलने तक

उसूल काँप रहे थे बदन की भट्टी में
क़नाअतों की मुकम्मल फ़ज़ा बदलने तक

मिरे लहू का नमक चख लिया है उस ने भी
वो ख़ुश रहेगा बहुत ज़ाइक़ा बदलने तक

सफ़ेद बर्फ़ पे नाची बहार जी-भर के
निज़ाम-ए-क़ुदरत-ए-कोहना की जा बदलने तक