EN اردو
फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई | शाही शायरी
fasl-e-gul tohmat-e-junun lai

ग़ज़ल

फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई

शाहिद इश्क़ी

;

फ़स्ल-ए-गुल तोहमत-ए-जुनूँ लाई
बस्ती बस्ती हुई है रुस्वाई

शहर में जब से आ गया हूँ तिरे
और भी बढ़ गई है तन्हाई

आरज़ू एक ना-शगुफ़्ता कली
जो सर-ए-शाख़-सार मुरझाई

आशिक़ी इक दबी हुई सी चोट
भीगे मौसम में जो उभर आई

ज़िंदगी शाम-ए-ग़म की बाँहों में
इक सुलगती हुई सी तन्हाई

लोग कहते हैं अहल-ए-दिल को कभी
ज़िंदगी रास ही नहीं आई

हौसला हो तो ऐ ग़म-ए-जानाँ
कौन तेरा नहीं तमन्नाई