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फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है | शाही शायरी
fasl-e-gul bhi taras ke kaTi hai

ग़ज़ल

फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है

मुज़्तर ख़ैराबादी

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फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
उम्र काँटों में बस के काटी है

मैं ने रो कर गुज़ार दी ऐ अब्र
जैसे तू ने बरस के काटी है

हो के पाबंद-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
ज़िंदगी बे-क़फ़स के काटी है

सोज़-ए-उल्फ़त में ज़िंदगी मैं ने
ग़ैर का मुँह झुलस के काटी है

ज़िंदगी-भर रहे हसीनों में
उम्र फूलों में बस के काटी है

उस ने किस नाज़ से मिरी गर्दन
कमर-ए-शौक़ कस के काटी है

उस की हसरत है दीद के क़ाबिल
जिस ने 'मुज़्तर' तरस के काटी है