फ़साना-ए-ग़म-ए-दिल मुख़्तसर नहीं होता
अब उस गली से हमारा गुज़र नहीं होता
हज़ार ऐसे कि फिरते हैं जो ख़लाओं में
मगर इक हम कि वतन में सफ़र नहीं होता
जिसे मसील समझते हो बे-मिसाल है वो
जो एक बार हो बार-ए-दिगर नहीं होता
ख़ुद अपना साथ भी हम को गिराँ गुज़रता है
सफ़र वही है जहाँ हम-सफ़र नहीं होता
अमीर उस का लहू पी रहा है बरसों से
मगर ग़रीब पे कोई असर नहीं होता
ख़ला से गुज़रे हैं मिर्रीख़ पर भी पहुँचे हैं
मगर किसी का फ़लक पर गुज़र नहीं होता
ग़ज़ल
फ़साना-ए-ग़म-ए-दिल मुख़्तसर नहीं होता
ख़ालिद हसन क़ादिरी