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फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए | शाही शायरी
farz-e-supurdagi mein taqaze nahin hue

ग़ज़ल

फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए

विपुल कुमार

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फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए
तेरे कहाँ से हों कि हम अपने नहीं हुए

कुछ क़र्ज़ अपनी ज़ात के हो भी गए वसूल
जैसे तिरे सुपुर्द थे वैसे नहीं हुए

अच्छा हुआ कि हम को मरज़ ला-दवा मिला
अच्छा नहीं हुआ कि हम अच्छे नहीं हुए

उस के बदन का मोड़ बड़ा ख़ुश-गवार है
हम भी सफ़र में उम्र से ठहरे नहीं हुए

इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
और फिर तमाम उम्र किसी के नहीं हुए

हम आ के तेरी बज़्म में बे-शक हुए ज़लील
जितने गुनाहगार थे उतने नहीं हुए

इस बार जंग उस से रऊनत की थी सो हम
अपनी अना के हो गए उस के नहीं हुए