फ़रेब था अक़्ल-ओ-आगही का कि मेरी फ़िक्र-ओ-नज़र का धोका 
जो आख़िर-ए-शब की चाँदनी पर हुआ था मुझ को सहर का धोका 
मैं बाग़बानों की साज़िशों को सियासतों को समझ चुका हूँ 
ख़िज़ाँ का खा कर फ़रेब-ए-पैहम उठा के बर्क़-ओ-शरर का धोका 
शुऊर-ए-पुख़्ता की ख़ैर हो जिस ने ज़िंदगी को बचा लिया है 
तिरी निगाह-ए-करम-नुमा ने दिया तो था उम्र-भर का धोका 
दुआओं को हाथ उठा रहा हूँ ये ख़ुद-फ़रेबी मुलाहिज़ा हो 
फ़रेब-ए-तस्कीन का बुरा हो मैं खा रहा हूँ असर का धोका 
दिखाई देती है मस्ख़ 'नय्यर' हसीन सूरत भी ज़िंदगी की 
क़ुसूर है आईने का इस में कि है ये आईना-गर का धोका
        ग़ज़ल
फ़रेब था अक़्ल-ओ-आगही का कि मेरी फ़िक्र-ओ-नज़र का धोका
सज्जाद बाक़र रिज़वी

