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फ़लक के न इन माह-पारों को देखो | शाही शायरी
falak ke na in mah-paron ko dekho

ग़ज़ल

फ़लक के न इन माह-पारों को देखो

आनंद नारायण मुल्ला

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फ़लक के न इन माह-पारों को देखो
जो मिट्टी में हैं उन सितारों को देखो

कभी कारवाँ भी नुमूदार होगा
निगाहें जमाए ग़ुबारों को देखो

निकल कर कभी शहर-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से
मोहब्बत के उजड़े दयारों को देखो

चमन में ये किस चाल से चल रहे हो
न फूलों को देखो न ख़ारों को देखो

ज़बाँ हुस्न की मो'तबर कब हुई है
किनायों को समझो इशारों को देखो

मुसल्लेह क़तारें इधर भी उधर भी
ज़रा अम्न की राह-गुज़ारों को देखो

चमन की ख़िज़ाँ पर न आँसू बहाओ
नज़र है तो कल की बहारों को देखो

न देखो दरख़्तों की दूरी चमन में
लिपटती हुई शाख़-सारों को देखो

ज़रा झाँक कर ग़ुर्फ़ा-ए-मयकदा से
तरसते लबों की क़तारों को देखो

किसी के सितम को भी समझते तवज्जोह
अरे इन तग़ाफ़ुल के मारों को देखो

वो दौर-ए-हयात-ए-जहाँ आ गया है
भँवर में रहो और किनारों को देखो

बढ़ो और हाथों का इक पल बना लो
किनारों से कब तक सवारों को देखो

बिना-ए-बक़ा धमकीयों पर फ़ना की
नए जग के परवरदिगारों को देखो

कभी नाम-ए-'मुल्ला' न आया ज़बाँ तक
ये दुनिया है 'मुल्ला' के यारों को देखो