फ़ैसला हिज्र का मंज़ूर भी हो सकता है
आदमी इश्क़ में मजबूर भी हो सकता है
वक़्त के पास नहीं ज़ख़्म-ए-मोहब्बत का इलाज
वक़्त के साथ ये नासूर भी हो सकता है
जी में आता है उसे हाथ लगा कर देखूँ
नूर सा लगता है, वो नूर भी हो सकता है
अपने काँधों पे सलीबों को उठाए हुए हैं
इश्क़-ज़ादों का ये दस्तूर भी हो सकता है
ज़ेहन का क्या है कि बचने के बहाने ढूँडे
दिल तो जाँबाज़ है, मंसूर भी हो सकता है
शेर कहने का सलीक़ा नहीं 'हाशिम' को मगर
तेरी तन्क़ीद से मशहूर भी हो सकता है
ग़ज़ल
फ़ैसला हिज्र का मंज़ूर भी हो सकता है
हाशिम रज़ा जलालपुरी