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फ़ासलों की बर्फ़ पिघलेगी मुझे ये डर न था | शाही शायरी
faslon ki barf pighlegi mujhe ye Dar na tha

ग़ज़ल

फ़ासलों की बर्फ़ पिघलेगी मुझे ये डर न था

मुज़फ़्फ़र इरज

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फ़ासलों की बर्फ़ पिघलेगी मुझे ये डर न था
इस से पहले लम्स का सूरज मिरे सर पर न था

दिल के दरवाज़े पे दस्तक दे रहा था कौन था
इक ज़रा सोचा कोई चेहरा कोई पैकर न था

आइने की ज़िद थी बाँटे जाएँ चेहरों के नुक़ूश
वर्ना मैं भी काँच की गुड़ियों का सौदागर न था

ज़र्द ठिठुरी धूप में पहने हुए उर्यां बदन
मैं ने पहचाना वो दीवाना न था ख़ुद-सर न था

इस से पहले या तो 'ईरज' ने कभी देखा न चाँद
या कभी इस तरह पहले चाँद शो'ला-गर न था