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फ़ाख़्ता शाख़ से उड़ते हुए घबराई थी | शाही शायरी
faKHta shaKH se uDte hue ghabrai thi

ग़ज़ल

फ़ाख़्ता शाख़ से उड़ते हुए घबराई थी

अताउल हसन

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फ़ाख़्ता शाख़ से उड़ते हुए घबराई थी
जब परिंदों के बिलकने की सदा आई थी

आबले मेरी ज़बाँ पर हैं तो हैरत कैसी
मैं ने इक बार तिरी झूटी क़सम खाई थी

कब ये सोचा था बराबर से गुज़र जाएगा
मेरी जिस शख़्स से बरसों की शनासाई थी

अब वो कहता है कि ज़ंजीर बनी मेरे लिए
उस के पैरों में जो पायल कभी पहनाई थी

वक़्त बदले तो हर इक रिश्ता बदलता है 'हसन'
दिल में दीवार कहाँ पहले मिरे भाई थी