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एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं | शाही शायरी
ek tarik KHala usMein chamakta hawa main

ग़ज़ल

एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं

इरफ़ान सत्तार

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एक तारीक ख़ला उस में चमकता हवा मैं
ये कहाँ आ गया हस्ती से सरकता हुआ मैं

शोला-ए-जाँ से फ़ना होता हूँ क़तरा क़तरा
अपनी आँखों से लहू बन के टपकता हुआ मैं

आगही ने मुझे बख़्शी है ये नार-ए-ख़ुद-सोज़
इक जहन्नम की तरह ख़ुद में भड़कता हुआ मैं

मुंतज़िर हूँ कि कोई आ के मुकम्मल कर दे
चाक पर घूमता बल खाता दरकता हुआ मैं

मजमा अहल-ए-हरम नक़्श-ब-दीवार उधर
और इधर शोर मचाता हुआ बकता हुआ मैं

मेरे ही दम से मिली साअत-ए-इम्कान उसे
वक़्त के जिस्म में दिल बन के धड़कता हुआ मैं

बे-नियाज़ी से मिरी आते हुए तंग ये लोग
और लोगों की तवज्जोह से बिदकता हुआ मैं

रात की रात निकल जाता हूँ ख़ुद से बाहर
अपने ख़्वाबों के तआक़ुब में हुमकता हुआ मैं

ऐसी यकजाई कि मिट जाए तमीज़-ए-मन-ओ-तू
मुझ में खिलता हुआ तू तुझ में महकता हुआ मैं

इक तो वो हुस्न-ए-जुनूँ-ख़ेज़ है आलम में शुहूद
और इक हुस्न-ए-जुनूँ-ख़ेज़ को तकता हुआ मैं

एक आवाज़ पड़ी थी कि कोई साइल-ए-हिज्र?
आन की आन में पहुँचा था लपकता हुआ मैं

है कशीद-ए-सुख़न-ए-ख़ास वदीअत मुझ को
घूमता फिरता हूँ ये इत्र छिड़कता हुआ मैं

राज़-ए-हक़ फ़ाश हुआ मुझ पे भी होते होते
ख़ुद तक आ ही गया 'इरफ़ान' भटकता हुआ मैं