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एक नश्तर सा रग-ए-जाँ में उतरने देना | शाही शायरी
ek nashtar sa rag-e-jaan mein utarne dena

ग़ज़ल

एक नश्तर सा रग-ए-जाँ में उतरने देना

क़य्यूम ताहिर

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एक नश्तर सा रग-ए-जाँ में उतरने देना
ज़िंदा रहना है तो ज़ख़्मों को न भरने देना

और कुछ देर न ऐ तेज़ हवाओ थमना
जितने बोसीदा हैं सफ़्हात बिखरने देना

तेरी पहचान की इक क़ौस अलग बन जाए
अपने लहजे को ज़रा और सँवरने देना

छू के देखेंगे तो फिर उन से भी नफ़रत होगी
आसमानों को ज़मीं पर न उतरने देना

मेरी बीनाई के सब दीप बुझा कर जाना
सानेहे सारे मिरी जान गुज़रने देना

देखना ख़्वाब-ज़मीनें न हूँ बंजर 'क़य्यूम'
अपना ये दर्द ये आशोब न मरने देना