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एक नाज़ुक दिल के अंदर हश्र बरपा कर दिया | शाही शायरी
ek nazuk dil ke andar hashr barpa kar diya

ग़ज़ल

एक नाज़ुक दिल के अंदर हश्र बरपा कर दिया

सरस्वती सरन कैफ़

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एक नाज़ुक दिल के अंदर हश्र बरपा कर दिया
हाए हम ने क्यूँ ये इज़हार-ए-तमन्ना कर दिया

अब नहीं है ख़ुश्क आँखों में सिवा वहशत के कुछ
इंतिहा-ए-ग़म ने क्या दरिया को सहरा कर दिया

उन के दर को छोड़ कर दर दर भटकते हम रहे
वहशत-ए-दिल ने अजब अंजाम उल्टा कर दिया

वसवसे उम्मीद के दम से जो थे सब मिट गए
इंतिहा-ए-दर्द ने ग़म का मुदावा कर दिया

लब पे लुक्नत आँखों में वहशत है चेहरा ज़र्द है
इश्तियाक़-ए-हूर ने ज़ाहिद को कैसा कर दिया

गो नहीं उम्मीद उस से थी इनायत की मगर
ये था फ़र्ज़-ए-आशिक़ी हम ने तक़ाज़ा कर दिया

इक निज़ा'-ए-मुस्तक़िल रहती है अक़्ल-ओ-शौक़ में
तर्क-ए-उल्फ़त ने तो अब दुश्वार जीना कर दिया

दिल तो था इक क़तरा-ए-ख़ूँ क्या हक़ीक़त उस की थी
तेरे ग़म ने क़ुल्ज़ुम-ए-ज़ख़्ख़ार जैसा कर दिया

इफ़्तिरा-ओ-मक्र से शायद तुझे मिलता वक़ार
हक़-परस्ती ने तुझे ऐ 'कैफ़' रुस्वा कर दिया